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सूरज किरन की छाँव

राजेन्द्र अवस्थी

प्रकाशक : परमेश्वरी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3511
आईएसबीएन :0000

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औरत पर आधारित उपन्यास...

Sooraj Kiran Ki Chhanav

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इस दुनिया में औरत बनना सबसे बड़ा पाप है। ईशु ने जिसे सबसे खूबसूरत चिराग कहा है, मुसलमानों ने जिसे खुदा का नूर नाम दिया है और हिन्दुओं ने जिसे साक्षात् देवी और लक्ष्मी माना है, वह वास्तव में पाप की गठरी के सिवाय कुछ नहीं है। जैसे बालक को खिलौना देकर भरमा दिया जाता है, पुरुषों ने इन नामों के मायाजाल में औरत को मक्खी की तरह फँसाकर रखा है। सचमुच वह एक निर्जीव नाव है, चाहे जब जो खिवैया आ जाय और मनचाही ओर उसे ले जाय। वह उसका प्रतिकार नहीं कर सकती। यदि नाव बीच में धोखा देने की बात भी सोचे, तो नाविक उसके पहले ही उसे पानी में सदा के लिए डुबाकर तैरकर पार उतर जाता है। औरत के साथ यह सब क्यों ? यदि वह संसार का निर्माण करती है तो उसके साथ यह छल कैसा ?

क्या औरत की जिन्दगी में इसके सिवाय कुछ और नहीं है ? यदि नहीं है तो दुनिया में औरत होना सबसे बड़ा पाप है। या तो आदमी को जन्म के साथ ही उसका गला घोंट देना चाहिए, जो वह नहीं कर सकता, या औरत को खुद जहर खाकर मर जाना चाहिए। इसके सिवाय उसके सामने चारा नहीं है-जब आदमी उसे जीने नहीं देना चाहता तो उसे धुँए में घुटने और तड़पने देने का भी उसे अधिकार नहीं है।

आमुख

‘सूरज-किरन की छांव’ मेरा पहला उपन्यास है और पुस्तकाकार प्रकाशित होने के पहले धारावाहिक रूप से प्रकाशित भी हो चुका था। पहली कृति से मुझे अपने प्रिय पाठकों का जो स्नेह मिला था, निरंतर बढ़ता जा रहा है। मैं अपने हज़ार-हज़ार पाठकों का आभारी हूं, जिन्होंने समय-समय पर अपने विचार व्यक्त कर और पत्र लिखकर मुझे प्रोत्साहित किया और सम्भवत: इसी का परिणाम है कि मैं आज भी अपने पाठकों की सेवा कर रहा हूं।
यह इस उपन्यास का छठा संस्करण है। तब भी मैंने इसमें किसी तरह का परिवर्तन करना ठीक नहीं समझा। इतना समय व्यतीत हो जाने के बावजूद मैं आज भी अपने पत्रों के बीच उसी दर्द के साथ जीता हूं और बंजारी का दर्द अब विस्तृत आयाम में समूची पिछड़ी हुई मानवता का दर्द बनकर और गहरे समा गया है।
मुझे विश्वास है, नये पाठक इस कृति के द्वारा मेरी आगे की समूची रचना-प्रक्रिया को समझ सकेंगे।
सम्पादक ‘कादम्बिनी
हिन्दुस्तान टाइम्स
नयी दिल्ली

राजेन्द्र अवस्थी

सूरज-किरन की छांव

1

तेन्दू के झाड़ पर चढ़ा उसे ज़ोर-जो़र से हिला रहा था और पके तेन्दू पकी साहों की भांति नीचे टपक रहे थे। तब मैं कुम्हड़ा टोला के नकटा नाले से पानी भरकर आ रही थी। बड़े-बड़े और पीले तेन्दुओं को देखकर जीभ होंठ चाटने लगी। झुककर मैंने एक तेन्दू उठा लिया, तो ऊपर से खोपड़ी पर पड़ापड़ दो- चार गिरे। कांखकर मैं वहीं अरअरा गई। ऊपर आंख उठाकर देखा, विलियम झाड़ से उतर रहा था। विलियम हमारे गांव के गायता का अकेला लड़का है, और सारे गाँव में छैला बना फिरता है। चाहे जिसे छबीली कहकर चुहंटी ले देता है और कभी गाल पर थप्पड़ भी जड़ देता है। उसकी इस आदत से गांव की हमजोली लड़कियाँ परेशान हैं। कल ही बद्दई की लड़की झरपन ने शिकायत की थी कि विलियम ने उसका जूड़ा इतने जोर से पकड़कर खींचा कि वह कांखकर रह गयी। आंख में आंसू भरे कह रही थी, ‘‘नेताम ने यह सब देख लिया था, तो गांव भर में बात बो दी। कहता था-ऐसी चंट लड़की से मेरा क्या रिश्ता ।’’

दईमारा विलियम यहीं जन्मा है और यहीं बड़ा भी हुआ, पर इत्ता भी नहीं जानता, कि किसी उठती बछेरी का जूड़ा खींचने से क्या होता है। बेचारी दिन-रात रोती है, अपने करम देहरी में पीटती है। कोई दिन था जब नेताम ने उसका आंचल थामकर पांव चूमा था; आज वह उसका अंगूठा भी चूमती है तो वही गोड़ दिखाता है। ऐसे अनाड़ी को देखकर मेरा
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1.    मुखिया
2.    झाड़-फूंक करने वाला ओझा।

खून सूख गया। कई दिनों से विलियम मेरे पीछे पड़ा था। गैल-हाट में मुझे देखकर सीटी बजाना और मटकाना उसका रोज़ का धन्धा था।
झाड़ से उतर कर उसने मेरी बाह पकड़ ली। बोला, ‘‘तेन्दू उठाती है ?’’ दूसरे हाथ से मेरे गाल में उसने धीरे से एक चांटा मारा और मुझे अपने पास खींचते हुए बोला, ‘‘गुस्सा हो गयी, बंजारी ? अरी, तू तो मेरी जिन्दगी है। तुझे भला मैं क्यों मारूं ? यह तो प्यार किया था तुझे !’’
प्यार का नाम सुनकर घबरा उठी। गुस्सा आ गया। बोली, ‘‘बड़ा आया प्यार करने वाला ! गांव की हर जवान लड़की को छेड़ता है और सबसे प्यार जताता है। तेरे बाप ने गांव पर एहसान किया है, तो इसका मतलब यह नहीं कि तू हमारी इज्जत लूटे।’’

‘‘हमारी-तुम्हारी का भेद कैसा, बंजारी ?’’ वह हौले से बोला, ‘‘हम क्रिश्चियन है, तो क्या तुम लोग नहीं हो ? नहीं जानतीं, मेरे बाप ने सारे गांव को बचाया है। जब अकाल पड़ा था, तो दाने-दाने को सारा गांव तरस गया। तब कोई सामने नहीं आया। मेरे बाप ने खून-पसीना एक कर दिया, शहर से बोरों अनाज लाकर गांव भर को मुफ्त बांटा-और देखती नहीं बंजारी, कितने को मौत के मुंह से बचाया। गांव में अस्पताल बनवा दिया है.....’’
‘‘बड़ा अच्छा किया है’’- मैंने दांत दिखाते हुए कहा, ‘‘बद्दई रोज़ पानी पी-पीकर तेरे बंस भर को कोसता है। और कोसे क्यों नहीं ? उसकी रोज़ी-रोटी छीन ली तेरे बाप ने। ज़रा-सा सिर चढ़ता है किसी का, तो सूटवारे साहब को बुला लाता है और देह में हाथभर की सूजी घुसड़वा देता है।’’

‘‘अच्छा तेरी सही, तू कहेगी तो डागघर को भगवा दूंगा और तेरे बाप का भी टिकट कटवा दूंगा। तू मत बिगड़, जब आंख तरेरती है तो मेरी छाती फटती है। आज घंटे भर से तेन्दू गिरा रहा हूं। तुझे नाला जाते देख लिया था। सोचा, लौटेगी तो ढेर-से आंचल में बांध दूगा। तब तेन्दू की फांक जैसे तेरे गाल फूल उठेंगे।’’
विलियम ने इतना कहकर मेरी दोनों बांहें जोर से पकड़ लीं और मुझे अपनी ओर खींचा। मैं चीख उठी। मेरी आवाज़ सुनकर सिन्दीराम दौड़ा। वह आसपास कहीं खेत जोत रहा था। गांव के रिश्ते में सिन्दीराम मेरा काका लगता है। उसने दूर से आने की आवाज दी, तो विलियम छोड़कर भाग गया।

सिन्दीराम ने मुझे छाती से लगा लिया, ‘‘कौन था, बेटी ?’’
‘‘वही, गायता का लाड़ला विलियम। माइलोटा1 कहीं का !’’
सिन्दीराम ने मेरे सिर पर हाथ फेरा, ‘‘रंगा स्यार है छोकरा। उसके बाप को क्या इसलिए गायता बनाया था। हमारी जान बचायी, यह सही है; पर मनमानी भी तो करता है। गांवभर का चंदा लेकर ‘बिलायती चरच’ खड़ी कर रहा है। कहता है इसमें तुम्हारा बड़ा देव बैठेगा; हरामजादा......लड़का सांड बना है, गांव भर की छोकरियों पर फंदा डालता रहता है। आज संझा को.....अच्छा बेटी, तू जा, कह तो गेंवड़े तक पहुंचा दूं।’’
‘‘नहीं काका, चली जाऊंगी, अभी तो उजेला है।’’

गांव की ओर बढ़ी, तो रह-रहकर विलियम की शकल आंखों के सामने झूलने लगी। उससे मुझे डर लगने लगा था। लगता था, हर झाड़ और मेढ़े के पीछे वह छिपा है। यहां से नहीं निकला तो वहां से निकलेगा। कब निकलेगा, कब निकल आए, क्या पता। पैर ठिठक जाते थे। अड़कर चारों ओर देखने लगती थी, पर नजर कुछ न आता।
सामने से लरकू का काला कुत्ता आता दिखा तो ढाढ़स बंधा। चलो, कोई साथी तो मिला, पर कुत्ता भी पांव सूंघकर आगे भग गया। पास वोदीराज देवता का पीपर था। हाथ जोड़कर मैंने उसे सिर झुकाया। आँख खोली तो दंग रह गयी, सामने विलियम खड़ा था। देवता, झाड़, खेत-खलिहान और गैल सब घूमने लगे थे। पर, अब की बार विलियम ने हाथ नहीं पकड़ा। वह दूर खड़ा रहा। बोला, ‘‘माफी मांगने आया हूं। मुझे मालूम नहीं था बंजारी कि तू मुझे नहीं चाहती। मैं तो जाने कब से तुझ पर लुट गया हूं। चाहता था तेरे पैरों पर अपना माथा धरकर ज़िन्दगी बिता दूं। खैर, तू नहीं चाहती, न सही। यह ले दो रुपये।’’
मैंने रुपये लेने से इनकार कर दिया, तो उसने जबरन मेरे आंचल में बांध दिये। बोला, ‘‘छोटी-सी भेंट है।’’ और सिर झुकाकर, जहां से मैं आयी
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1.    एक तरह की गाली।

थी, उसी ओर भाग गया। मैंने लौटकर देखा, वह दौड़ता जा रहा था। भारी मन से मैं आगे बढ़ी। आंचल खोला, चांदी के दो गोल रुपये थे। मन हुआ इन्हें फेंक दूं। इन टुकड़ों को डालकर वह मेरी इज्जत लूटना चाहता है, पर हाथ से रुपये न फेंके गये। दो रुपये थोड़े होते है ! यहां तो चील का घोंसला है। तापे1 दिन भर छाती मारता है तो छह-आठ आने कमाता है और आवा2 तपती दुपहरी में खेत काटती है तो एक पायली कमा पाती है। दो रुपये पाना तो दूर, देखना हराम है। आज जिन्दगी में पहली बार देखने में मिले हैं तो फेंके नहीं गये। आंचल की गांठ मैंने जोर से बांध दी और कमर में खोंसकर संतोष की सांस ली।

घर के सामने गैल में तो कबरी, भूरी और बिजरा लड़ रहे थे। डंडा उठाकर उनका झगड़ा मिटाया और उन्हें थान के हवाले किया। तब तक तापे लकड़ी का बोझ लेकर घर आ गया था और आवा ने भी चूल्हें में सिर डाल दिया था।
बियारी तक जी घबराता रहा। बार-बार जी में आता कि विलियम की छेड़खानी की चर्चा करूं, पर हाथ कमर के पास गांठ में चला जाता और मैं सांस लेकर रह जाती। सिन्दीराम का भी रास्ता देख रही थी। वह तापे से विलियम की बात बता ही देगा। घंटों उसकी गैल हेरती रही, पर वह न आया। गाँव के कुत्ते भूंकने लगे, तो मैं लुढ़क रही। एक हल्की-सी झपकी आयी और फिर जो नींद खुली, तो रात तारे गिनते बीती।
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1.    पिता।
2.    मां।

 

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